Friday, December 24, 2010

जब विरह का जोगी अलख जगाता है

जब विरह का जोगी अलख जगाता है
तन झुलसे है और मन अकुलाता है

पलकें बोझिल हो जाती हैं
सांसे थम-थम जाती हैं
धड़कन रटती नाम पिया का
सुध-बुध सारी खो जाती है

तन इकतारा राग वैरागी गाता है

नींद परायी सपन पराये
मनवा एकाकी घबराये
सांसे तसल्ली दे  धड़कन को
धड़कन सांसो को समझाये

कौन भला ये बातें समझ पाता है

3 comments:

  1. जब विरह का जोगी अलख जगाता है
    तन झुलसे है और मन अकुलाता है

    कौन भला ये समझ पाता है
    अच्छा लगा यहां आकर....

    http://veenakesur.blogspot.com/

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  2. सुन्दर भाव गीत .बधाई भाई साहब !

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  3. पलकें बोझिल हो जाती हैं
    सांसे थम-थम जाती हैं
    धड़कन रटती नाम पिया का
    सुध-बुध सारी खो जाती है

    तन इकतारा राग वैरागी गाता है


    आपने भक्ति के 'विरह' पक्ष की अति सुन्दर प्रस्तुति की है.
    आपके इस भक्ति भाव को सादर नमन.

    समय मिले तो मेरे ब्लॉग पर दर्शन दीजियेगा.

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